जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील'
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
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तस्वीर बनाता हूँ तिरी ख़ून-ए-जिगर से
बे-ख़ुदी है न होशियारी है
कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है
बे-पिए शैख़ फ़रिश्ता था मगर
वो यूँ खो के मुझे पाया करेंगे
शोख़ नज़रों में जो शामिल बरहमी हो जाएगी
जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है
सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं
अब तक शिकायतें हैं दिल-ए-बद-नसीब से
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
हम हैं और उन की ख़ुशी है आज-कल
कभी यक-ब-यक तवज्जोह कभी दफ़अतन तग़ाफ़ुल