बे-पिए शैख़ फ़रिश्ता था मगर
पी के इंसान हुआ जाता है
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इस दर्जा बद-गुमाँ हैं ख़ुलूस-ए-बशर से हम
कोई ऐ 'शकील' पूछे ये जुनूँ नहीं तो क्या है
अलीगढ़ छोड़ने के ब'अद
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
पहलू में दर्द-ए-इश्क़ की दुनिया लिए हुए
मुझे भूल जा
चाँदनी में रुख़-ए-ज़ेबा नहीं देखा जाता
नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता
हुई हम से ये नादानी तिरी महफ़िल में आ बैठे
बीत गया हंगाम-ए-क़यामत रोज़-ए-क़यामत आज भी है
रक़्क़ासा-ए-हयात से
इक शहंशाह ने बनवा के....