क्या असर था जज़्बा-ए-ख़ामोश में
ख़ुद वो खिच कर आ गए आग़ोश में
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मिरी ज़िंदगी पे न मुस्कुरा मुझे ज़िंदगी का अलम नहीं
लतीफ़ पर्दों से थे नुमायाँ मकीं के जल्वे मकाँ से पहले
बेगाना हो के बज़्म-ए-जहाँ देखता हूँ मैं
तिरी महफ़िल से उठ कर इश्क़ के मारों पे क्या गुज़री
तुम फिर उसी अदा से अंगड़ाई ले के हँस दो
बुज़-दिली होगी चराग़ों को दिखाना आँखें
मैं बताऊँ फ़र्क़ नासेह जो है मुझ में और तुझ में
न पैमाने खनकते हैं न दौर-ए-जाम चलता है
कहीं हुस्न का तक़ाज़ा कहीं वक़्त के इशारे
कब तक 'शकील' दिल को दुआ कीजिएगा आप
बस इक निगाह-ए-करम है काफ़ी अगर उन्हें पेश-ओ-पस नहीं है
शाम-ए-ग़म करवट बदलता ही नहीं