रिंद-ए-ख़राब-नोश की बे-अदबी तो देखिए
निय्यत-ए-मय-कशी न की हाथ में जाम ले लिया
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पी शौक़ से वाइज़ अरे क्या बात है डर की
रहमतों से निबाह में गुज़री
नग़्मा-ए-इश्क़ सुनाता हूँ मैं इस शान के साथ
हर चीज़ नहीं है मरकज़ पर इक ज़र्रा इधर इक ज़र्रा उधर
तम्हीद-ए-सितम और है तकमील-ए-जफ़ा और
इस दर्जा बद-गुमाँ हैं ख़ुलूस-ए-बशर से हम
कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
इहानत-ए-दिल-ए-सब्र-आज़मा नहीं करते
शग़ुफ़्तगी-ए-दिल-ए-कारवाँ को क्या समझे
दूर हैं वो और कितनी दूर
ये क्या सितम-ज़रीफ़ी-ए-फ़ितरत है आज-कल