'शकील' इस दर्जा मायूसी शुरू-ए-इश्क़ में कैसी
अभी तो और होना है ख़राब आहिस्ता आहिस्ता
Gulzar
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तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
वो यूँ खो के मुझे पाया करेंगे
जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है
पैहम तलाश-ए-दोस्त मैं करता चला गया
जादा-ए-इश्क़ में गिर गिर के सँभलते रहना
रौशनी साया-ए-ज़ुल्मात से आगे न बढ़ी
गुलशन हो निगाहों में तो जन्नत न समझना
हर गोशा-ए-नज़र में समाए हुए हो तुम
नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता
कैसे कह दूँ कि मुलाक़ात नहीं होती है
किस से जा कर माँगिये दर्द-ए-मोहब्बत की दवा
ख़ाना-ए-उम्मीद बे-नूर-ओ-ज़िया होने को है