घर में आसेब ज़लज़ले का है
इस लिए ख़ुद में ही सिमट के हैं
Ahmad Faraz
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किसी ट्रेन के नीचे वो कट गया होता
सब से पहले तो अर्ज़ मतला है
मंज़र यूँ था
फ़ज़ा-ए-नम में सदाओं का शोर हो जाए
एक इंच मुस्कुराहट
सराबों का सफ़र
शहर में अम्न-ओ-अमाँ हो ये ज़रूरी है मगर
नया आदम
ये और बात कि गमले में उग रहा हूँ मैं
नया लहजा ग़ज़ल का मिस्रा-ए-सानी में रक्खा है
इज़हार-ए-तशक्कुर
हम-मर्तबा न समझो रुत्बा मिरा तो जानो