मूए ने मुँह की खाई फिर भी ये ज़ोर ज़ोरी
ये रेख़्ती है भाई तुम रेख़्ता तो जानो
Gulzar
Habib Jalib
Allama Iqbal
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Wasi Shah
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नया लहजा ग़ज़ल का मिस्रा-ए-सानी में रक्खा है
शहर में अम्न-ओ-अमाँ हो ये ज़रूरी है मगर
इज़हार-ए-तशक्कुर
ये और बात कि गमले में उग रहा हूँ मैं
तिलिस्म-ए-सफ़र
हम-मर्तबा न समझो रुत्बा मिरा तो जानो
घर में आसेब ज़लज़ले का है
नया आदम
सराबों का सफ़र
मंज़र यूँ था
एक इंच मुस्कुराहट