मोहब्बत की कमी
लफ़्ज़ों से पूरी कर रहा था मैं
मगर जब आज
मैं सच-मुच में उस को चाहता हूँ
उसे मुझ से शिकायत है ख़मोशी की
कोई बतलाए उस को
ये ख़मोशी ही तो सच्ची है
वो सारे लफ़्ज़ झूटे थे
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इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने
भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं
वो बकरा फिर अकेला पड़ गया है
पहली बार वो ख़त लिक्खा था
हाथ आता तो नहीं कुछ प तक़ाज़ा कर आएँ
गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हूँ कि लहजे में तिरे
छुट्टी का दिन
अजब शिकस्त का एहसास दिल पे छाया था
तसल्ली अब हुई कुछ दिल को मेरे
अजब लहजे में करते थे दर ओ दीवार बातें
बहरूपिया
तन से जब तक साँस का रिश्ता रहेगा