गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हूँ कि लहजे में तिरे
वो खुला-पन है कि दीवार हुआ जाता है
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बहुत गदला था पानी उस नदी का
बरसों जुनूँ सहरा सहरा भटकाता है
कौन था वो जिस ने ये हाल किया है मेरा
यही रस्सी मिली थी
आओ गले मिल कर ये देखें
एक कैंसर के मरीज़ की बड़-बड़
शायद उसे ज़रूरत हो अब पर्दे की
कहाँ सोचा था मैं ने बज़्म-आराई से पहले
तन से जब तक साँस का रिश्ता रहेगा
बहुत हिम्मत का है ये काम 'शारिक़'
उम्र भर किस ने भला ग़ौर से देखा था मुझे