बहुत हिम्मत का है ये काम 'शारिक़'
कि शरमाते नहीं डरते हुए हम
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इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने
कहाँ सोचा था मैं ने बज़्म-आराई से पहले
लरज़ते काँपते हाथों से बूढ़ा
ये कुछ बदलाव सा अच्छा लगा है
कुछ क़दम और मुझे जिस्म को ढोना है यहाँ
झूट पर उस के भरोसा कर लिया
जैसे ये मेज़ मिट्टी का हाथी ये फूल
कौन था वो जिस ने ये हाल किया है मेरा
यही रस्सी मिली थी
रात थी जब तुम्हारा शहर आया
तो क्या मरना भी अब मुमकिन नहीं है
मजबूरी