तो क्या मरना भी अब मुमकिन नहीं है?
ये मैं हूँ क्या?
जो सब हम-राहियों से
बे-सबब लड़ता-झगड़ता फिर रहा हूँ
सीट की ख़ातिर
इक ऐसी ट्रेन में
चुना था जिस को थोड़ी देर पहले
ख़ुद-कुशी करने को मैं ने
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Anwar Masood
Gulzar
Wasi Shah
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Rahat Indori
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(508) Peoples Rate This
बरसों जुनूँ सहरा सहरा भटकाता है
अजब लहजे में करते थे दर ओ दीवार बातें
नींद के वास्ते वैसे भी ज़रूरी है थकन
फ़ासला रख के भी क्या हासिल हुआ
क़ुर्ब का उस के उठा कर फ़ाएदा
ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है
रात थी जब तुम्हारा शहर आया
मश्क़
इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं
तरह तरह से मिरा दिल बढ़ाया जाता है
रात बे-पर्दा सी लगती है मुझे
ख़ाक को मैं ख़्वार क्यूँ करता