अजब लहजे में करते थे दर ओ दीवार बातें
मिरे घर को भी शायद मेरी आदत अब हुई है
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हाथ आता तो नहीं कुछ प तक़ाज़ा कर आएँ
झूट पर उस के भरोसा कर लिया
सूना आँगन नींद में ऐसे चौंक उठा है
कहाँ सोचा था मैं ने बज़्म-आराई से पहले
नज़र भर देख लूँ बस
मुमकिन ही न थी ख़ुद से शनासाई यहाँ तक
कुछ क़दम और मुझे जिस्म को ढोना है यहाँ
मोहब्बत की इंतिहा पर
वो सारे लफ़्ज़ झूटे थे
रात बे-पर्दा सी लगती है मुझे
बहुत हिम्मत का है ये काम 'शारिक़'