फ़ासला रख के भी क्या हासिल हुआ
आज भी उस का ही कहलाता हूँ मैं
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कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं
बीनाई भी क्या क्या धोके देती है
फ़क़त हिस्से की ख़ातिर
सामने तेरे हूँ घबराया हुआ
ख़मोशी बस ख़मोशी थी इजाज़त अब हुई है
रुका महफ़िल में इतनी देर तक मैं
क्या मिला दश्त में आ कर तिरे दीवाने को
कभी ख़ुद को छू कर नहीं देखता हूँ
कौन था वो जिस ने ये हाल किया है मेरा
सारी दुनिया से लड़े जिस के लिए
वो बस्ती ना-ख़ुदाओं की थी लेकिन
हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम