हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
उसे कैसे लगे रोते हुए हम
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तसल्ली अब हुई कुछ दिल को मेरे
वो दिन भी थे कि इन आँखों में इतनी हैरत थी
सियाने थे मगर इतने नहीं हम
मुझे हँसना पड़ा आख़िर
मुजरिम होने की मजबूरी
सब आसान हुआ जाता है
मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली
एक कैंसर के मरीज़ की बड़-बड़
गुज़र रहा है वो लम्हा तो याद आया है
इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने
ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है
जैसे ये मेज़ मिट्टी का हाथी ये फूल