मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली
ऐसा मरने का माहौल बनाया हम ने
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कुतिया
रुका महफ़िल में इतनी देर तक मैं
झूट पर उस के भरोसा कर लिया
गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हूँ कि लहजे में तिरे
एक कैंसर के मरीज़ की बड़-बड़
क़ुर्ब का उस के उठा कर फ़ाएदा
फ़ासला रख के भी क्या हासिल हुआ
पता नहीं ये तमन्ना-ए-क़ुर्ब कब जागी
मंज़िलों पर हम मिलें ये तय हुआ
यही कमरा था जिस में चैन से हम जी रहे थे
पहली बार वो ख़त लिक्खा था
अजब शिकस्त का एहसास दिल पे छाया था