नया यूँ है कि अन-देखा है सब कुछ
यहाँ तक रौशनी आती कहाँ थी
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हो सबब कुछ भी मिरे आँख बचाने का मगर
बात फाँसी के दिन की नहीं
बहुत गदला था पानी उस नदी का
दुनिया शायद भूल रही है
सूना आँगन नींद में ऐसे चौंक उठा है
मैं किसी दूसरे पहलू से उसे क्यूँ सोचूँ
बीनाई भी क्या क्या धोके देती है
शायद उसे ज़रूरत हो अब पर्दे की
इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने
कौन कहे मा'सूम हमारा बचपन था
यही कमरा था जिस में चैन से हम जी रहे थे
फ़ासला रख के भी क्या हासिल हुआ