हो सबब कुछ भी मिरे आँख बचाने का मगर
साफ़ कर दूँ कि नज़र कम नहीं आता है मुझे
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भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं
वो बकरा फिर अकेला पड़ गया है
झूट पर उस के भरोसा कर लिया
वो दिन भी थे कि इन आँखों में इतनी हैरत थी
नया यूँ है कि अन-देखा है सब कुछ
कैसे टुकड़ों में उसे कर लूँ क़ुबूल
वो बस्ती ना-ख़ुदाओं की थी लेकिन
सूना आँगन नींद में ऐसे चौंक उठा है
मजबूरी
अजब मुश्किल है मेरी
कौन था वो जिस ने ये हाल किया है मेरा
कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं