शायद उसे ज़रूरत हो अब पर्दे की
रौशनियाँ घर की मद्धम कर जाऊँ मैं
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जैसे ये मेज़ मिट्टी का हाथी ये फूल
तसल्ली अब हुई कुछ दिल को मेरे
मजबूरी
ख़ाक को मैं ख़्वार क्यूँ करता
भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं
तन से जब तक साँस का रिश्ता रहेगा
पहली बार वो ख़त लिक्खा था
अचानक भीड़ का ख़ामोश हो जाना
जीत गया जीत गया
हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
अब मुझे कौन जीत सकता है
बीनाई भी क्या क्या धोके देती है