पहली बार वो ख़त लिक्खा था
जिस का जवाब भी आ सकता था
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मंज़िलों पर हम मिलें ये तय हुआ
एक दिन हम अचानक बड़े हो गए
यक़ीन के ख़िलाफ़
जैसे ये मेज़ मिट्टी का हाथी ये फूल
मुजरिम होने की मजबूरी
वो बकरा फिर अकेला पड़ गया है
तो क्या मरना भी अब मुमकिन नहीं है
एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
मरने वाले से जलन
अभी तो अच्छी लगेगी कुछ दिन जुदाई की रुत
रात बे-पर्दा सी लगती है मुझे
झूट पर उस के भरोसा कर लिया