मुझे हँसना पड़ा आख़िर
उन्हीं बातों पे
जिन पर मैं बहुत नाराज़ था उस से
ये इक-तरफ़ा मोहब्बत
यूँ भी इतना दर्द देती है
कि इस में बीच का रस्ता कभी मुमकिन नहीं होता
वही झुकता है
जिस को दूसरा दरकार होता है
किसी क़ीमत पे चाहे जो भी हो जाए
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भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं
इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने
कुतिया
बहुत हसीं रात है मगर तुम तो सो रहे हो
एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
आओ गले मिल कर ये देखें
पहली बार वो ख़त लिक्खा था
कम से कम दुनिया से इतना मिरा रिश्ता हो जाए
रात थी जब तुम्हारा शहर आया
इबादत के वक़्त में हिस्सा
बहुत भटके तो हम समझे हैं ये बात