कभी ख़ुद को छू कर नहीं देखता हूँ
ख़ुदा जाने किस वहम में मुब्तला हूँ
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यही रस्सी मिली थी
भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं
मोहब्बत की इंतिहा पर
कोई कुछ भी कहता रहे सब ख़ामोशी से सुन लेता है
अपने तमाशे का टिकट
जनाज़े में तो आओगे न मेरे
हाथ आता तो नहीं कुछ प तक़ाज़ा कर आएँ
ये चुपके चुपके न थमने वाली हँसी तो देखो
किसी ताँगे में फिर सामान रक्खा जा रहा है
ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है
कहाँ सोचा था मैं ने बज़्म-आराई से पहले
मुजरिम होने की मजबूरी