एक रात आप ने उम्मीद पे क्या रक्खा है
आज तक हम ने चराग़ों को जला रक्खा है
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सन कर बयान-ए-दर्द कलेजा दहल न जाए
ख़ुद अपना हाल दिल-ए-मुब्तला से कुछ न कहा
उन से मिलते थे तो सब कहते थे क्यूँ मिलते हो
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म
कौन देता रहा सहरा में सदा मेरी तरह
वो नियाज़-ओ-नाज़ के मरहले निगह-ओ-सुख़न से चले गए
मैं तो चुप था मगर उस ने भी सुनाने न दिया
अजनबी
शब-ए-वा'दा कह गई है शब-ए-ग़म दराज़ रखना
सिमट सिमट सी गई थी ज़मीं किधर जाता
तमाशा
जाने क्या क़ीमत-ए-अरबाब-ए-वफ़ा ठहरेगी