क्यूँ ध्यान बटाती है मिरा गर्दिश-ए-दुनिया
हट जा कि न फ़र्क़ आए मिरी लग़्ज़िश-ए-पा में
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बे-समझे-बूझे मोहब्बत की इक काफ़िर ने ईमान लिया
क़दम तो रख मंज़िल-ए-वफ़ा में बिसात खोई हुई मिलेगी
ये आधी रात ये काफ़िर अंधेरा
ये वो आज़माइश-ए-सख़्त है कि बड़े बड़े भी निकल गए
ग़ुस्ल-ए-तौबा के लिए भी नहीं मिलती है शराब
ये इंक़लाब भी ऐ दौर-ए-आसमाँ हो जाए
दम घुटा जाता है मोहब्बत का
आग और धुआँ और हवस और है इश्क़ और
कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है
जान सी शय की मुझे इश्क़ में कुछ क़द्र नहीं
आँखों में आज आँसू फिर डबडबा रहे हैं
तुझे पा के तुझ से जुदा हो गए हम