पहाड़ जैसे दिनों को तो काट लूँ लेकिन
निकल न पाऊँ मैं इक रात की गिरानी से
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इस ज़मीन ओ आसमाँ पर ख़ाक डाल
ज़िंदगी जिस ने तल्ख़ की मेरी
जब कोई आलम-ए-शुहूद न था
हमारे जैसे ही लोगों से शहर भर गए हैं
ज़रूरी कब है कि हर काम इख़्तियारी करें
कि ख़ुद-नुमाई न तश्हीर चाहते हैं हम
जन्नत से निकाला न जहन्नुम से निकाला
ख़िज़ाँ की आज़माइश हो गया हूँ
सिर्फ़ थोड़ी सी है अना मुझ में
इन दिनों तेज़ बहुत तेज़ है धारा मेरा
दस्त-बरदार हुआ मैं भी तलबगारी से