हम दोज़ख़-ए-एहसास में जलते ही रहेंगे
ये फ़िक्र का हासिल है बसीरत की सज़ा है
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Rahat Indori
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Gulzar
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Wasi Shah
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Jaun Eliya
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तुम मिरे पास रहो जिस्म की गरमी बख़्शो
था आईने के सामने चेहरा खुला हुआ
एक जग बीत गया झूम के आए बादल
जब सफ़र को मैं ने थामा था ये अंधा रास्ता
जागते में रात मुझ को ख़्वाब दिखलाया गया
किस तरह ज़िंदा रहेंगे हम तुम्हारे शहर में
वो मिरा होगा ये सोचा ही नहीं
उतर के धूप जब आएगी शब के ज़ीने से
वो दश्त-ए-तीरगी है कि कोई सदा न दे
शोला-ए-इश्क़ में जो दिल को तपाँ रखते हैं
ऊँची नीची पेच खाती दौड़ती काली सड़क