इक ख़ला है जो पुर नहीं होता
जब कोई दरमियाँ से उठता है
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दरख़्शाँ हो जो वो मह-ज़ादा-ए-शब
जो डर अपनों से है ग़ैरों से वो डर हो नहीं सकता
तसलसुल पाएमाली का मिलेगा
वजूद को जिगर-ए-मो'तबर बनाते हैं
मुनव्वर और मुबहम इस्तिआरे देख लेता हूँ
है किस के लिए लुत्फ़ ग़ज़ब किस के लिए है
है ता-हद्द-ए-इम्काँ कोई बस्ती न बयाबाँ
न जाने रौज़न-ए-दीवार क्या जादू जगाता है
फ़साद-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र हासिल-ए-तमाशा देख
है इर्तिबात-शिकन दाएरों में बट जाना
कहीं भी ताइर-ए-आवारा हो मगर तय है
किसी ख़याल की रौ में था मुस्कुराते हुए