है इर्तिबात-शिकन दाएरों में बट जाना
चमन का मौजा-ए-बाद-ए-सबा से कट जाना
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इक चाँद है आवारा-ओ-बेताब ओ फ़लक-ताब
ख़ाकसारों से क़रीं रहता है
इक ख़ला है जो पुर नहीं होता
कहीं भी ताइर-ए-आवारा हो मगर तय है
न जाने रौज़न-ए-दीवार क्या जादू जगाता है
हाल-ए-दिल-ए-तबाह किसी ने सुना कहाँ
तसलसुल पाएमाली का मिलेगा
वजूद को जिगर-ए-मो'तबर बनाते हैं
बे-लुत्फ़ है ये सोच कि सौदा नहीं रहा
जो डर अपनों से है ग़ैरों से वो डर हो नहीं सकता
मैं पर-शिकस्ता न था बादलों के बीच मगर
बहार आती है लेकिन सर में वो सौदा नहीं होता