इक चाँद है आवारा-ओ-बेताब ओ फ़लक-ताब
इक चाँद है आसूदगी-ए-हिज्र का मारा
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है इर्तिबात-शिकन दाएरों में बट जाना
वो ख़ुद को मेरे अंदर ढूँडता है
मैं देखता हूँ फ़राज़-ए-जुनूँ से दुनिया को
रंज-ए-दुनिया हो कि रंज-ए-आशिक़ी क्या देखना
पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं
अजब नहीं कि हो दीवार नुक़्ता-ए-मौहूम
जिसे ना-ख़्वाब कहते हैं उसी को ख़्वाब कहते हैं
फ़साद-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र हासिल-ए-तमाशा देख
बे-लुत्फ़ है ये सोच कि सौदा नहीं रहा
गर्दिश-ए-आब-ओ-हवा जानती है
है ता-हद्द-ए-इम्काँ कोई बस्ती न बयाबाँ
है किस के लिए लुत्फ़ ग़ज़ब किस के लिए है