जिसे ना-ख़्वाब कहते हैं उसी को ख़्वाब कहते हैं
तमीज़-ए-ख़ैर-ओ-शर में नुकता-ए-सद-मोतबर क्या है
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इक चाँद है आवारा-ओ-बेताब ओ फ़लक-ताब
कहीं भी ताइर-ए-आवारा हो मगर तय है
मुनव्वर और मुबहम इस्तिआरे देख लेता हूँ
किसी ख़याल की रौ में था मुस्कुराते हुए
न जाने जाए कहाँ तक ये सिलसिला दिल का
ख़िरद ऐ बे-ख़बर कुछ भी नहीं है
ज़ेब उस को ये आशोब-ए-गदाई नहीं देता
है ता-हद्द-ए-इम्काँ कोई बस्ती न बयाबाँ
पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं
हाल-ए-दिल-ए-तबाह किसी ने सुना कहाँ
है इर्तिबात-शिकन दाएरों में बट जाना
कहीं पे दस्त-ए-निगारीं कहीं लब-ए-ल'अलीं