कहीं पे दस्त-ए-निगारीं कहीं लब-ए-ल'अलीं
वो सोते सोते मिरी नींद का उचट जाना
Anwar Masood
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ख़िरद ऐ बे-ख़बर कुछ भी नहीं है
ये आँख तंज़ न हो ज़ख़्म-ए-दिल हरा न लगे
दिल शहर-ए-तहय्युर है कि वो मम्लिकत-आरा
किसी ख़याल की रौ में था मुस्कुराते हुए
जिसे ना-ख़्वाब कहते हैं उसी को ख़्वाब कहते हैं
तसलसुल पाएमाली का मिलेगा
मलाल-ए-ग़ुंचा-ए-तर जाएगा कभी न कभी
बहार आती है लेकिन सर में वो सौदा नहीं होता
लरज़ रहा था फ़लक अर्ज़-ए-हाल ऐसा था
अजीब शय है तरह-दार भी तमन्ना भी
मुनव्वर और मुबहम इस्तिआरे देख लेता हूँ