अपने लिए भी कोई रिआयत रवा नहीं
इस मुंसिफ़ी की ख़ू ने तो सफ़्फ़ाक कर दिया
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फ़क़ीह-ए-शहर से कुछ ख़ास दुश्मनी तो नहीं
मिट्टी तिरे महकने से मुझ को गुमान है
ये कैसे ख़ौफ़ हमें आज फिर सताने लगे
इस पल दो पल की हस्ती में
जो माल उस ने समेटा था वो भी सारा गया
राहत के वास्ते न रिफ़ाक़त के वास्ते
जैसे कि इक फ़्रेम हो तस्वीर के बग़ैर
इन से आवाज़-ए-कर्ब आती है
बोली लगी मता-ए-हुनर की तो अहल-ए-फ़न
वो मुझ से पूछने लगा मेरे सवाल अब
तुझ को ही सोचता रहूँ फ़ुर्सत नहीं रही
क्यूँ मिल रही है उन को सज़ा चीख़ती रही