फ़क़त तुम ही नहीं नाराज़ मुझ से जान-ए-जानाँ
मिरे अंदर का इंसाँ तक ख़फ़ा है इंतिहा है
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आँखों में है कैसा पानी बंद है क्यूँ आवाज़
नहीं है रहना उसे भी बहार में 'ताहिर'
हर एक रस्ता-ए-पायाब से निकलना है
उसे भी पर्दा-ए-तहज़ीब को गिराना है
मुझे वो छोड़ कर जब से गया है इंतिहा है
बुझ रही है आँख ये जिस्म है जुमूद में
रंग क्या अजब दिया मेरी बेवफ़ाई को