वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना
हम ऐसे लम्हे में इक दास्ताँ बनाते हैं
Javed Akhtar
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ख़ुदा वजूद में है आदमी के होने से
ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है
न बे-कली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का
आहिस्ता-रवी शहर को काहिल न बना दे
बस एक शय मिरे अंदर तमाम होती हुई
उसे कहाँ हमें क़ैदी बना के रखना था
यूँ भी तो तिरी राह की दीवार नहीं हैं
फिर क़िस्सा-ए-शब लिख देने के ये दिल हालात बनाए है
ये तेरा दिवाना रात गए मालूम नहीं क्यूँ पहरों तक
अक्सर मिरे शेरों की सना करते रहे हैं
दर्द-आमेज़ है कुछ यूँ मिरी ख़ामोशी भी