ख़ुदा वजूद में है आदमी के होने से
और आदमी का तसलसुल ख़ुदा से क़ाएम है
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ख़िरद नहीं है यहाँ बस जुनून का सौदा
तमाम शहर ही तेरी अदा से क़ाएम है
तो क्यूँ इस बार उस ने मेरे आगे सर झुकाया है
किस की आँखों का नशा है कि मिरे होंटों को
हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं
सवाल क्या है जवाब क्या है
अक्सर मिरे शेरों की सना करते रहे हैं
उसे कहाँ हमें क़ैदी बना के रखना था
वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना
नई ज़मीनों को अर्ज़-ए-गुमाँ बनाते हैं
दर्द-आमेज़ है कुछ यूँ मिरी ख़ामोशी भी