किस की आँखों का नशा है कि मिरे होंटों को
इस क़दर तर नहीं कर सकती बला-नोशी भी
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सफ़र ही बस कार-ए-ज़िंदगी है
इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
दर्द-आमेज़ है कुछ यूँ मिरी ख़ामोशी भी
ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है
तो क्यूँ इस बार उस ने मेरे आगे सर झुकाया है
इस तरह तुझे इश्क़ किया है कि ये दुनिया
हम जब्र-ए-मोहब्बत से गुरेज़ाँ नहीं होते
वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना
अक्सर मिरे शेरों की सना करते रहे हैं
ख़िरद नहीं है यहाँ बस जुनून का सौदा
नज़ारगी-ए-शौक़ ने दीदार में खींचा