उसे कहाँ हमें क़ैदी बना के रखना था
हमीं को शौक़ नहीं था कभी रिहाई का
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न बे-कली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का
दर्द-आमेज़ है कुछ यूँ मिरी ख़ामोशी भी
तो क्यूँ इस बार उस ने मेरे आगे सर झुकाया है
वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना
सफ़र ही बस कार-ए-ज़िंदगी है
बहुत मुश्किल था मुझ को राह का हमवार कर देना
तमाम शहर ही तेरी अदा से क़ाएम है
अक्सर मिरे शेरों की सना करते रहे हैं
हम जब्र-ए-मोहब्बत से गुरेज़ाँ नहीं होते
इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
नई ज़मीनों को अर्ज़-ए-गुमाँ बनाते हैं
किस की आँखों का नशा है कि मिरे होंटों को