ये जंगलों की रात है
इस रात से आगे कोई बस्ती नहीं
ये ओस जो शाख़ों में है
पी लें उसे
इस ओस से आगे कोई नदी नहीं
Javed Akhtar
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ख़ार चुनते हुए
सफ़र और क़ैद में अब की दफ़अ' क्या हुआ
शहरों के सारे जंगल गुंजान हो गए हैं
जान के एवज़
आख़िरी कील
कभी वो मिस्ल-ए-गुल मुझे मिसाल-ए-ख़ार चाहिए
दूर तक ये रास्ते ख़ामोश हैं
सुनाओ मुझे भी एक लतीफ़ा
आख़िरी पत्तियों में
लम्हा-ए-इमकान को पहलू बदलते देखना
राएगाँ सुब्ह की चिता पर
इज़्हार-ए-जुनूँ बर-सर-ए-बाज़ार हुआ है