अच्छा है कि सिर्फ़ इश्क़ कीजे
ये उम्र तो यूँ भी राएगाँ है
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इक तीर नहीं क्या तिरी मिज़्गाँ की सफ़ों में
शौक़ कहता है कि हर जिस्म को सज्दा कीजे
दिल की बाज़ी हार के रोए हो तो ये भी सुन रक्खो
मेरी सूरत साया-ए-दीवार-ओ-दर में कौन है
क्या बताऊँ कि है किस ज़ुल्फ़ का सौदा मुझ को
वाहिमा होगा यहाँ कोई न आया होगा
आख़िर ख़ुद अपने ही लहू में डूब के सर्फ़-ए-विग़ा होगे
कितने ही तीर ख़म-ए-दस्त-ओ-कमाँ में होंगे
दिल की बात न मानी होती इश्क़ किया क्यूँ पीरी में
अजीब रंग थे दिल में जो आँसुओं में न थे
था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी