देखने वाली अगर आँख को पहचान सकें
रंग ख़ुद पर्दा-ए-तस्वीर से बाहर हो जाएँ
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बजा कि दरपय-ए-आज़ार चश्म-ए-तर है बहुत
इक तीर नहीं क्या तिरी मिज़्गाँ की सफ़ों में
दिल की बात न मानी होती इश्क़ किया क्यूँ पीरी में
क्या बताऊँ कि है किस ज़ुल्फ़ का सौदा मुझ को
क्या ये सच है कि ख़िज़ाँ में भी चमन खिलते हैं
इस पार जहान-ए-रफ़्तगाँ है
जो भी नरमी है ख़यालों में न होने से है
तुम अच्छे थे तुम को रुस्वा हम ने किया
वाहिमा होगा यहाँ कोई न आया होगा
गर्द-आलूद दरीदा चेहरा यूँ है माह ओ साल के ब'अद
अजीब रंग थे दिल में जो आँसुओं में न थे
पाँव में लिपटी हुई है सब के ज़ंजीर-ए-अना