जो भी नरमी है ख़यालों में न होने से है
ख़्वाब आँखों से निकल जाएँ तो पत्थर हो जाएँ
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दिल बयाज़-ए-उम्र की औराक़-गर्दानी में है
क्या ये सच है कि ख़िज़ाँ में भी चमन खिलते हैं
अजीब रंग थे दिल में जो आँसुओं में न थे
कितने ही तीर ख़म-ए-दस्त-ओ-कमाँ में होंगे
काश इक शब के लिए ख़ुद को मयस्सर हो जाएँ
तुम अच्छे थे तुम को रुस्वा हम ने किया
देखने वाली अगर आँख को पहचान सकें
क्या बताऊँ कि है किस ज़ुल्फ़ का सौदा मुझ को
आइना मिलता तो शायद नज़र आते ख़ुद को
कौन से दुख को पल्ले बाँधें किस ग़म को तहरीर करें
बजा कि दरपय-ए-आज़ार चश्म-ए-तर है बहुत