दिल बयाज़-ए-उम्र की औराक़-गर्दानी में है
क्या ख़बर है कौन सा सफ़्हा खुला रह जाएगा
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क्या बताऊँ कि है किस ज़ुल्फ़ का सौदा मुझ को
अजीब रंग थे दिल में जो आँसुओं में न थे
तुम अच्छे थे तुम को रुस्वा हम ने किया
बजा कि दरपय-ए-आज़ार चश्म-ए-तर है बहुत
मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ
काश इक शब के लिए ख़ुद को मयस्सर हो जाएँ
जो भी नरमी है ख़यालों में न होने से है
इस पार जहान-ए-रफ़्तगाँ है
सुनो कवी तौसीफ़ तबस्सुम इस दुख से क्या पाओगे
था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी
पाँव में लिपटी हुई है सब के ज़ंजीर-ए-अना
आइना मिलता तो शायद नज़र आते ख़ुद को