जिस पर नज़र पड़े उसे ख़ुद से निकालना
रौशन-दिलों का काम है मानिंद-ए-आईना
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मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ
ख़ुदा किसी कूँ किसी साथ आश्ना न करे
तिरे लब-बिन है दिल में शोला-ज़न मुल जिस को कहते हैं
जपे है विर्द सा तुझ से सनम के नाम को शैख़
कुफ़्र मोमिन है न करना दिलबराँ से इख़्तिलात
जिन दिनों हम उस शब-ए-हज़ के सियह-कारों में थे
माह-ए-कामिल हो मुक़ाबिल यार के रू से चे-ख़ुश
गए सब मर्द रह गए रहज़न अब उल्फ़त से कामिल हूँ
ख़ुदा शाहिद बुतो दो-जग से ये सौदा है निर्वाला
मौसम-ए-गुल में हैं दीवानों के बाज़ार कई
उस को पहुँची ख़बर कि जीता हूँ
कर रहे हैं मुझ से तुझ-बिन दीदा-ए-नमनाक जंग