तल्ख़ लगता है उसे शहर की बस्ती का स्वाद
ज़ौक़ है जिस को बयाबाँ के निकल जाने का
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तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब
जा कर फ़ना के उस तरफ़ आसूदा मैं हुआ
जल्द मर गए तिरी हसरत सेती हम
ग़ुंचा-ए-दिल मिरा खा कर गुल-ए-ख़ंदाँ मेरा
अबस तोड़ा मिरा दिल नाज़ सिखलाने के काम आता
सिया है ज़ख़्म-ए-बुलबुल गुल ने ख़ार और बोईगुलशन से
आज दिल बे-क़रार है मेरा
जाती रहीं किधर वो मोहब्बत की बानियाँ
मिरे नज़'अ को मत उस से कहो हुआ सो हुआ
कुफ़्र मोमिन है न करना दिलबराँ से इख़्तिलात
कहा जो मैं ने गया ख़त से हाए तेरा हुस्न