जल्द मर गए तिरी हसरत सेती हम
कि तिरा देर का आना न गया
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जपे है विर्द सा तुझ से सनम के नाम को शैख़
ग़नीमत बूझ लेवें मेरे दर्द-आलूद नालों को
गए सब मर्द रह गए रहज़न अब उल्फ़त से कामिल हूँ
तुझ क़बा पर गुलाब का बूटा
ख़ुदा ही पहुँचे फ़रियादों को हम से बे-नसीबों के
दिलों में रहिए जहाँ के वले ख़ुदा के ढब
तल्ख़ लगता है उसे शहर की बस्ती का स्वाद
तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब
ऐ यार मुझ अफ़सुर्दा-ए-हिज्राँ को पहुँच तू
ऐ सालिक इंतिज़ार-ए-हज में क्या तू हक्का-बक्का है
जा कर फ़ना के उस तरफ़ आसूदा मैं हुआ
वक़्त बोसे के मिरा मुँह उस के लब से जूँ जुड़ा