ग़नीमत बूझ लेवें मेरे दर्द-आलूद नालों को
ये दीवाना बहुत याद आएगा शहरी ग़ज़ालों को
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दिलों में रहिए जहाँ के वले ख़ुदा के ढब
जल्द मर गए तिरी हसरत सेती हम
तिरी ज़ुल्फ़ की शब का बेदार मैं हूँ
बहार आई जुनूँ लेगा हमारा इम्तिहाँ देखें
मैं सहरा जा के क़ब्र-ए-हज़रत-ए-मजनूँ को देखा था
गए सब मर्द रह गए रहज़न अब उल्फ़त से कामिल हूँ
ऐ सालिक इंतिज़ार-ए-हज में क्या तू हक्का-बक्का है
कहा जो मैं ने गया ख़त से हाए तेरा हुस्न
मुझ क़ब्र से यार क्यूँके जावे
न शोख़ियों से करे हैं वो चश्म-ए-गुल-गूँ रक़्स
ख़ुदा शाहिद बुतो दो-जग से ये सौदा है निर्वाला
बंदे हैं तेरी छब के मह से जमाल वाले