तिरी ज़ुल्फ़ की शब का बेदार मैं हूँ
तुझ आँखों के साग़र का मय-ख़्वार मैं हूँ
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हम उस की ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर में हुए हैं असीर
इश्क़ गोरे हुस्न का आशिक़ के दिल को दे जला
आज दिल बे-क़रार है मेरा
मग़्ज़-ए-बहार इस बरस उस बिन बचा न था
मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ
गुल रहे नहिं नाम को सरकश हैं ख़ाराँ अल-अयाज़
हँसूँ जूँ गुल तिरे ज़ख़्मों से उल्फ़त इस को कहते हैं
है उस की ज़ुल्फ़ से नित पंजा-ए-अदू गुस्ताख़
न शोख़ियों से करे हैं वो चश्म-ए-गुल-गूँ रक़्स
मेरे अश्कों की गई थी रेल वीराने पे क्या गुज़रा
दिलों में रहिए जहाँ के वले ख़ुदा के ढब
तिरे लब-बिन है दिल में शोला-ज़न मुल जिस को कहते हैं