मैं सहरा जा के क़ब्र-ए-हज़रत-ए-मजनूँ को देखा था
ज़ियारत करते थे आहू बगूला तौफ़ करता था
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इश्क़ गोरे हुस्न का आशिक़ के दिल को दे जला
बहार आधी गुज़र गई हाए हम क़ैदी हैं ज़िंदाँ के
जपे है विर्द सा तुझ से सनम के नाम को शैख़
ग़ैर-ए-आह-ए-सर्द नहीं दाग़ों के जाने का इलाज
जो आशिक़ हो उसे सहरा में चल जाने से क्या निस्बत
ख़ुदा ही पहुँचे फ़रियादों को हम से बे-नसीबों के
ख़त ने आ कर की है शायद रहम फ़रमाने की अर्ज़
न शोख़ियों से करे हैं वो चश्म-ए-गुल-गूँ रक़्स
जब से दिलबर ने आँख फेरा है
वक़्त बोसे के मिरा मुँह उस के लब से जूँ जुड़ा
कर रहे हैं मुझ से तुझ-बिन दीदा-ए-नमनाक जंग
सिया है ज़ख़्म-ए-बुलबुल गुल ने ख़ार और बोईगुलशन से