जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया
मैं रहगुज़र था मुझे रौंद कर ज़माना गया
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चुटकी भर रौशनी
या रब तिरी रहमत का तलबगार है ये भी
बे-सदा दम-ब-ख़ुद फ़ज़ा से डर
रात भर इक सदा
उस की आवाज़ में थे सारे ख़द-ओ-ख़ाल उस के
ज़ेहन-ए-रसा की गिर्हें मगर खोलने लगे
लाज़िम कहाँ कि सारा जहाँ ख़ुश-लिबास हो
चलो अपनी भी जानिब अब चलें हम
सफ़र
उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना
धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
दरमाँदा