कहने को चंद गाम था ये अरसा-ए-हयात
लेकिन तमाम उम्र ही चलना पड़ा तुझे
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पहना दे चाँदनी को क़बा अपने जिस्म की
उम्मीद
इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे
ज़ेहन-ए-रसा की गिर्हें मगर खोलने लगे
ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं
किस किस से न वो लिपट रहा था
किस की ख़ुशबू ने भर दिया था उसे
सकता
कराँ-ता-कराँ
तिरा ही रूप नज़र आए जा-ब-जा मुझ को
गुल ने ख़ुशबू को तज दिया न रहा
करना पड़ेगा अपने ही साए में अब क़याम