सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र ये है
वहाँ को भूल गए और यहाँ को पहचाना
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चुटकी भर रौशनी
तिरा ही रूप नज़र आए जा-ब-जा मुझ को
हथेली
अंकबूत
लाज़िम कहाँ कि सारा जहाँ ख़ुश-लिबास हो
समेटता रहा ख़ुद को मैं उम्र-भर लेकिन
जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया
वो अपनी उम्र को पहले पिरो लेता है डोरी में
चलो अपनी भी जानिब अब चलें हम
मुसाफ़िर चलते रहते हैं
दरमाँदा
मैं और तू